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गुज़रे तअ'ल्लुक़ात का अब वास्ता न दे | शाही शायरी
guzre talluqat ka ab wasta na de

ग़ज़ल

गुज़रे तअ'ल्लुक़ात का अब वास्ता न दे

अफ़ज़ल अलवी

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गुज़रे तअ'ल्लुक़ात का अब वास्ता न दे
गुम हो चुकी किताब जो उस का पता न दे

अब तज़्किरे न छेड़ मिरे अहद-ए-शौक़ के
जो बुझ गई है आग उसे फिर हवा न दे

कुछ इस क़दर फ़रेब सहारों से खाए हैं
मैं गिर पड़ूँगा ख़ौफ़ से तू आसरा न दे

जिस की जबीन-ए-शौक़ पे लिक्खा था मेरा नाम
अब दूर जा बसा है तू शायद भुला न दे

शो'ला जो मौजज़न है मोहब्बत का दिल में आज
डर है कि सरसर-ए-ग़म-ए-दौराँ बुझा न दे

गो चल पड़ा हूँ दिल से मगर चाहता हूँ ये
उठ कर मुझे वो रोक ले और रास्ता न दे

ख़ाली न कोई दौलत-ए-इख़्लास से रहे
'अल्वी' किसी को भूल के ये बद-दुआ' न दे