गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन 
ऐसा लगा बसर हुए जन्नत में चार दिन 
उम्र-ए-ख़िज़र की उस को तमन्ना कभी न हो 
इंसान जी सके जो मोहब्बत में चार दिन 
जब तक जिए निभाएँगे हम उन से दोस्ती 
अपने रहे जो दोस्त मुसीबत में चार दिन 
ऐ जान-ए-आरज़ू वो क़यामत से कम न थे 
काटे तिरे बग़ैर जो ग़ुर्बत में चार दिन 
फिर उम्र भर कभी न सुकूँ पा सका ये दिल 
कटने थे जो भी कट गए राहत में चार दिन 
जो फ़क़्र में सुरूर है शाही में वो कहाँ 
हम भी रहे हैं नश्शा-ए-दौलत में चार दिन 
उस आग ने जला के ये दिल राख कर दिया 
उठते थे 'जोश' शोले जो वहशत में चार दिन
 
        ग़ज़ल
गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन
ए जी जोश

