गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना
क़ैद-ख़ाना है अजब गुम्बद-ए-बे-दर अपना
शक्ल रहने की है बस्ती में ये उस बिन अपनी
जैसे जंगल में बनाता है कोई घर अपना
शब की बे-ताबियाँ क्या कहिए कि देखा जो सहर
टुकड़े टुकड़े नज़र आया हमें बिस्तर अपना
हम-नशीं उस को जो लाना है तो ला जल्द कि हम
थामे बैठे रहें कब तक दिल-ए-मुज़्तर अपना
वो गए दिन कि सदा मय-कदा-ए-हस्ती में
बादा-ए-ऐश से लबरेज़ था साग़र अपना
ताब-ए-नज़्ज़ारा तिरी लाए न ख़ुर्शीद ज़रा
हाथ जब तक कि न रख ले वो जबीं पर अपना
देंगे सर इश्क़ के सौदे में अगरचे हम को
इस में नुक़साँ नज़र आता है सरासर अपना
है ज़मीं ख़ूब ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल इस को कहिए
बस कि मामूल है 'जुरअत' यही अक्सर अपना
ग़ज़ल
गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श