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गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना | शाही शायरी
guzar is hujra-e-gardun se ho kidhar apna

ग़ज़ल

गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना

जुरअत क़लंदर बख़्श

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गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना
क़ैद-ख़ाना है अजब गुम्बद-ए-बे-दर अपना

शक्ल रहने की है बस्ती में ये उस बिन अपनी
जैसे जंगल में बनाता है कोई घर अपना

शब की बे-ताबियाँ क्या कहिए कि देखा जो सहर
टुकड़े टुकड़े नज़र आया हमें बिस्तर अपना

हम-नशीं उस को जो लाना है तो ला जल्द कि हम
थामे बैठे रहें कब तक दिल-ए-मुज़्तर अपना

वो गए दिन कि सदा मय-कदा-ए-हस्ती में
बादा-ए-ऐश से लबरेज़ था साग़र अपना

ताब-ए-नज़्ज़ारा तिरी लाए न ख़ुर्शीद ज़रा
हाथ जब तक कि न रख ले वो जबीं पर अपना

देंगे सर इश्क़ के सौदे में अगरचे हम को
इस में नुक़साँ नज़र आता है सरासर अपना

है ज़मीं ख़ूब ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल इस को कहिए
बस कि मामूल है 'जुरअत' यही अक्सर अपना