गुज़र गया जो मिरे दिल पे सानेहा बन कर
उतर गया वो मिरी रूह में ख़ुदा बन कर
तिरा ख़याल शब-ए-हिज्र फैलता ही गया
हज़ार रंग की सोचों का सिलसिला बन कर
वफ़ा के संग से टकरा के एहतिजाज-ए-अना
सलीब-ए-लब पे सिसकने लगा दुआ बन कर
बदन के दश्त में मन की हसीन सुब्हों को
निकल रहा है ग़म-ए-दहर अज़दहा बन कर
कभी तो दीप जलें गुल खिलें फ़ज़ा महके
कभी तो आ शब-ए-वीराँ में रतजगा बन कर
तमाम उम्र जिसे ढूँडते रहे 'आ'ली'
कहीं मिला भी अगर वो तो फ़ासला बन कर
ग़ज़ल
गुज़र गया जो मिरे दिल पे सानेहा बन कर
जलील ’आली’