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गुज़र गया जो मिरे दिल पे सानेहा बन कर | शाही शायरी
guzar gaya jo mere dil pe saneha ban kar

ग़ज़ल

गुज़र गया जो मिरे दिल पे सानेहा बन कर

जलील ’आली’

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गुज़र गया जो मिरे दिल पे सानेहा बन कर
उतर गया वो मिरी रूह में ख़ुदा बन कर

तिरा ख़याल शब-ए-हिज्र फैलता ही गया
हज़ार रंग की सोचों का सिलसिला बन कर

वफ़ा के संग से टकरा के एहतिजाज-ए-अना
सलीब-ए-लब पे सिसकने लगा दुआ बन कर

बदन के दश्त में मन की हसीन सुब्हों को
निकल रहा है ग़म-ए-दहर अज़दहा बन कर

कभी तो दीप जलें गुल खिलें फ़ज़ा महके
कभी तो आ शब-ए-वीराँ में रतजगा बन कर

तमाम उम्र जिसे ढूँडते रहे 'आ'ली'
कहीं मिला भी अगर वो तो फ़ासला बन कर