गुज़र गई है मुझे रेग-ज़ार करती हुई
वो एक मछली समुंदर शिकार करती हुई
न जाने कितने भँवर को रुला के आए है
ये मेरी कश्ती-ए-जाँ ख़ुद को पार करती हुई
वो एक साअ'त-ए-मासूम दिल की पर्वर्दा
मुकर गई है मगर ए'तिबार करती हुई
जुनूँ की आख़िरी लर्ज़ीदा मुज़्महिल सी रात
झपक गई है ज़रा इंतिज़ार करती हुई
ये कैसी ख़्वाहिश-ए-ना-दीद है दोराहे पर
सहम गई है अभी मुझ पे वार करती हुई
लिपट के सो गई आख़िर शम-ए-फ़िराक़ के साथ
शब-ए-सियाह सितारे शुमार करती हुई
सफ़र में कैसी हरारत क़रीब थी 'ख़ुर्शीद'
उतर गई है मुझे धार-दार करती हुई
ग़ज़ल
गुज़र गई है मुझे रेग-ज़ार करती हुई
खुर्शीद अकबर

