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गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार | शाही शायरी
guzar chali hai shab-e-dil-figar aaKHiri bar

ग़ज़ल

गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार

सऊद उस्मानी

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गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
बिछड़ने वाले हैं यारों से यार आख़िरी बार

दमक रहा है सहर की जबीं पे बोसा-ए-शब
थपक रही है सबा रू-ए-यार आख़िरी बार

ज़रा सी देर को है पत्तियों पे शीशा-ए-नम
गुज़र रही है किरन आर-पार आख़िरी बार

ये बात ख़ेमों के जलते दिए भी जानते थे
कि हम को बुझना है तरतीब-वार आख़िरी बार

किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
सफ़र कठिन है मगर एक बार आख़िरी बार

सुमों से उड़ती हुई रेग-ए-दश्त ढूँढती है
ग़ुबार होते हुए शहसवार आख़िरी बार