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गूँगे लफ़्ज़ों का ये बे-सम्त सफ़र मेरा है | शाही शायरी
gunge lafzon ka ye be-samt safar mera hai

ग़ज़ल

गूँगे लफ़्ज़ों का ये बे-सम्त सफ़र मेरा है

मेराज फ़ैज़ाबादी

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गूँगे लफ़्ज़ों का ये बे-सम्त सफ़र मेरा है
गुफ़्तुगू उस की है लहजे में असर मेरा है

मैं ने खोए हैं यहाँ अपने सुनहरे शब ओ रोज़
दर-ओ-दीवार किसी के हों ये घर मेरा है

मेरा अस्लाफ़ से रिश्ता तो न तोड़ ऐ दुनिया
सब महल तेरे हैं लेकिन ये खंडर मेरा है

आती जाती हुई फ़सलों का मुहाफ़िज़ हूँ मैं
फल तो सब उस की अमानत हैं शजर मेरा है

मेरे आँगन के मुक़द्दर में अँधेरा ही सही
इक चराग़ अब भी सर-ए-राहगुज़र मेरा है

दूर तक दार-ओ-रसन दार-ओ-रसन दार-ओ-रसन
ऐसे हालात में जीना भी हुनर मेरा है

जब भी तलवार उठाता हूँ कि छेड़ूँ कोई जंग
ऐसा लगता है कि हर शाने पे सर मेरा है