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घूमूँ नहीं तो क्या मैं कहीं जा के पड़ रहूँ | शाही शायरी
gumun nahin to kya main kahin ja ke paD rahun

ग़ज़ल

घूमूँ नहीं तो क्या मैं कहीं जा के पड़ रहूँ

एम कोठियावी राही

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घूमूँ नहीं तो क्या मैं कहीं जा के पड़ रहूँ
बीमार आदमी की तरह रात काट दूँ

देखेगा आज मेरी तरफ़ कौन प्यार से
बुझता हुआ चराग़ हूँ पतझड़ का चाँद हूँ

तस्वीर बन के देख रहा हूँ जहान को
तू ही बता कि और मैं अब कैसे चुप रहूँ

शीरीं है ज़हर मौत का ऐ तल्ख़ी-ए-हयात
जी चाहता है आज तिरा जाम तोड़ दूँ

इस बारे में तो आप से बेहतर हूँ मैं ज़रूर
पीना भी पड़ गया तो पिया है ख़ुद अपना ख़ूँ

ख़त लिख के फाड़ देना मिरे मशग़लों में है
पढ़ती रही है आग मिरा नामा-ए-ज़ुबूँ

गिर जाएगी ये छत जो चली झूम कर हवा
'राही' मिरी हयात है इक क़स्र-ए-बे-सुतूँ