ग़ुरूर-ओ-नाज़-ओ-तकब्बुर के दिन तो कब के गए
ज़हीर अब वो ज़माने हसब-नसब के गए
बहुत ग़ुरूर गुलिस्ताँ में था गुलाबों को
तुम्हें जो देखा तो होश-ओ-हवास सब के गए
मचा है शोर ख़िज़ाँ का है रुख़ उसी जानिब
अगर ये सच है तो समझो कि हम भी अब के गए
ख़ुलूस से न सही रस्म ही निभाने को
तुम आ गए हो तो शिकवे तमाम लब के गए
वो चाँदनी वो तबस्सुम वो प्यार की बातें
हुई सहर तो वो मंज़र तमाम शब के गए
कभी तो हल्क़ा-ए-ज़ंजीर-ए-यास भी टूटे
कभी तो लौट के आएँ वो लम्हे जब के गए
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ओ-नाज़-ओ-तकब्बुर के दिन तो कब के गए
ज़हीर अहमद ज़हीर