ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
हमारी रूठी हुई नज़र को तिरी तजल्ली मना रही है
वो तूर वाली तिरी तजल्ली ग़ज़ब की गर्मी दिखा रही है
वहाँ तो पत्थर जला दिए थे यहाँ कलेजा जला रही है
मिरे नशेमन में शान-ए-क़ुदरत के सारे अस्बाब हैं मुहय्या
हवा सफ़ाई पे है मुक़र्रर चराग़ बिजली जला रही है
न उस के दामन से मैं ही उलझा न मेरे दामन से ये ही अटकी
हवा से मेरा बिगाड़ क्या है जो शम-ए-तुर्बत बुझा रही है
फ़रिश्ते आए अगर लहद में तो साफ़ कह दूँगा रास्ता लो
जब उस की चाहत में जान दे दी तो बात कहने को क्या रही है
जमाल-ए-क़ुदरत मुझी को दे दे कि मैं कलेजे की चोट सेकूँ
कलीम के घर में रक्खे रक्खे वो आग अब क्या बना रही है
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
मुज़्तर ख़ैराबादी