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ग़ुरूर-ए-पास-ए-रिवायत बदल के रख दूँगा | शाही शायरी
ghurur-e-pas-e-riwayat badal ke rakh dunga

ग़ज़ल

ग़ुरूर-ए-पास-ए-रिवायत बदल के रख दूँगा

अख़्तर रज़ा अदील

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ग़ुरूर-ए-पास-ए-रिवायत बदल के रख दूँगा
मैं रफ़्तगाँ की शरीअ'त बदल के रख दूँगा

गदा-ए-इल्म हूँ निकला तो फिर क़रीने से
तुम्हारा तर्ज़-ए-तरीक़त बदल के रख दूँगा

सलाह-ए-दोस्त शराफ़त से मान ले वर्ना
मैं ये लिबास-ए-शराफ़त बदल के रख दूँगा

जो अहद-ए-रफ़्ता से जाऊँगा रफ़्तगाँ की तरफ़
तो फिर सुकून से वहशत बदल के रख दूँगा

मैं इस ज़मीन से जिस रोज़ उठ गया 'अख़्तर'
तो आसमान की हालत बदल के रख दूँगा