ग़ुरूर-ए-नाज़ दिखा तुझ में कितना जौहर है
मिरा ख़ुलूस भी दरिया नहीं समुंदर है
परख यही है मोहब्बत की आँच दो उस को
पिघल गया तो वो शीशा है वर्ना पत्थर है
ख़ला-नवर्द को यारो फ़राज़-ए-मंज़िल क्या
कि अब तो उस का हर इक पर बजाए शहपर है
अदावतों को फ़ना कर दिया मोहब्बत से
मुजाहिदे में मोहब्बत ही अपना ख़ंजर है
सुबूत-ए-बैअत-ए-पीर-ए-हरम ये है तो सही
कि आज तक कफ़-ए-दस्त-ए-रसा मुनव्वर है
मुझे ज़रूरत-ए-ग़ाज़ा नहीं कि चेहरे पर
मिरे ज़मीर का जो रंग है उजागर है
सितारा-ए-सहर-आसार है जो ऐ 'ग़ौसी'
ग़ुबार-बस्ता अभी उस का पेश-मंज़र है
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ए-नाज़ दिखा तुझ में कितना जौहर है
ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी