ग़ुरूर-ए-कोह के होते नियाज़-ए-काह रखते हैं
तिरे हम-राह रहने को क़दम कोताह रखते हैं
अंधेरों में भी गुम होती नहीं सम्त-ए-सफ़र अपनी
निगाहों में फ़िरोज़ाँ इक शबीह-ए-माह रखते हैं
ये दुनिया क्या हमें अपनी डगर पर ले के जाएगी
हम अपने साथ भी मर्ज़ी की रस्म-ओ-राह रखते हैं
वो दीवार-ए-अना की ओट किस किस आग जलता है
दिल ओ दीदा को सब अहवाल से आगाह रखते हैं
दर-ओ-बसत-ए-जहाँ में देखते हैं सक़्म कुछ 'आली'
और अपनी सोच का इक नक़्शा-ए-इस्लाह रखते हैं
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ए-कोह के होते नियाज़-ए-काह रखते हैं
जलील ’आली’