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ग़ुरूर-ए-कोह के होते नियाज़-ए-काह रखते हैं | शाही शायरी
ghurur-e-koh ke hote niyaz-e-kah rakhte hain

ग़ज़ल

ग़ुरूर-ए-कोह के होते नियाज़-ए-काह रखते हैं

जलील ’आली’

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ग़ुरूर-ए-कोह के होते नियाज़-ए-काह रखते हैं
तिरे हम-राह रहने को क़दम कोताह रखते हैं

अंधेरों में भी गुम होती नहीं सम्त-ए-सफ़र अपनी
निगाहों में फ़िरोज़ाँ इक शबीह-ए-माह रखते हैं

ये दुनिया क्या हमें अपनी डगर पर ले के जाएगी
हम अपने साथ भी मर्ज़ी की रस्म-ओ-राह रखते हैं

वो दीवार-ए-अना की ओट किस किस आग जलता है
दिल ओ दीदा को सब अहवाल से आगाह रखते हैं

दर-ओ-बसत-ए-जहाँ में देखते हैं सक़्म कुछ 'आली'
और अपनी सोच का इक नक़्शा-ए-इस्लाह रखते हैं