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गुर बुत-ए-कम-सिन दाम बिछाए | शाही शायरी
gur but-e-kam-sin dam bichhae

ग़ज़ल

गुर बुत-ए-कम-सिन दाम बिछाए

शौक़ बहराइची

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गुर बुत-ए-कम-सिन दाम बिछाए
बुलबुलें क्या हैं हाथी फँसाए

उन से निगाहें कौन मिलाए
तेवरी चढ़ी है मुँह हैं फुलाए

मसनद-ए-ज़र पे बैठा है वाइज़
खींसें निकाले चंदिया घटाए

उस से वो मिलते रहते हैं अक्सर
रोज़ उन्हें जो चाय पिलाए

महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है कोई
ज़ुल्फ़ों में कड़वा तेल लगाए

रात को अक्सर शैख़-ए-हरम भी
मय-कदे पहुँचे मुँह को छुपाए

गर्दिश-ए-क़िस्मत गर्दिश-ए-दौराँ
जिस को चाहे ख़ूब नचाए

जिस को भी चाहे दोस्त नवाज़े
जिस को न चाहे ठेंगा दिखाए

लेता है दस्त-ए-नाज़ के बोसे
हम से अच्छा लाईफ़-ब्वॉय

रोक निगाह-ए-हिर्स को माली
तेरे चमन को चरने न पाए