EN اردو
ग़ुंचा जो सर-ए-शाख़ चटकते हुए देखा | शाही शायरी
ghuncha jo sar-e-shaKH chaTakte hue dekha

ग़ज़ल

ग़ुंचा जो सर-ए-शाख़ चटकते हुए देखा

इशरत क़ादरी

;

ग़ुंचा जो सर-ए-शाख़ चटकते हुए देखा
पहलू में बहुत दिल को धड़कते हुए देखा

मेहंदी-रचे हाथों ने उठाया ही था घूँघट
इक शोला-ए-जव्वाला लपकते हुए देखा

वो तेरे बिछड़ने का समाँ याद जब आया
बीते हुए लम्हों को सिसकते हुए देखा

भूला नहीं एहसास तिरे लम्स की ख़ुश्बू
तन्हाई में अन्फ़ास महकते हुए देखा

खींचे हुए अब तीर कमाँ में है वो बालक
आग़ोश में जिस को न हुमकते हुए देखा

जब जब भी चराग़ों की लवें हम ने बढाईं
क्या क्या न हवाओं को सनकते हुए देखा