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ग़ुंचा-ए-दिल कि बिखरता भी दिखाई न दिया | शाही शायरी
ghuncha-e-dil ki bikharta bhi dikhai na diya

ग़ज़ल

ग़ुंचा-ए-दिल कि बिखरता भी दिखाई न दिया

महशर इनायती

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ग़ुंचा-ए-दिल कि बिखरता भी दिखाई न दिया
ऐसा बिखरा कि इशारा भी दिखाई न दिया

किस के हम-राह नज़र आता था तन्हा तन्हा
किस से बछड़ा हूँ कि तन्हा भी दिखाई न दिया

रौशनी की वो चका-चौंध थी आँखों में कि हम
शहर से निकले तो सहरा भी दिखाई न दिया

सर्द-मेहरी-ए-ज़माना की सुलगती हुई आग
क्या बला थी कि धुआँ सा भी दिखाई न दिया

उन किताबों पे तो हम ने भी किया है कुछ काम
जिन में इक हर्फ़-ए-तमन्ना भी दिखाई न दिया

बस चले थे कि ग़ुबार-ए-रह-ए-मंज़िल उट्ठा
चेहरे वो बदले कि अपना भी दिखाई न दिया

रात भर ख़ून के दरिया में नहाया ख़ुर्शीद
दामन-ए-सुब्ह पे धब्बा भी दिखाई न दिया

सारा आलम था कि तारीक नज़र आता था
और 'महशर' को धुँदलका भी दिखाई न दिया