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गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ | शाही शायरी
gunahgar hun aisa rah-e-najat mein hun

ग़ज़ल

गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ

सिराज लखनवी

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गुनाहगार हूँ ऐसा रह-ए-नजात में हूँ
मैं ख़ुद चराग़-ब-कफ़ हर अँधेरी रात में हूँ

शुऊ'र गुम हुआ दीवानगी है खोई हुई
ख़ुदा ही जाने मैं किस मंज़िल-ए-हयात में हूँ

तजल्ली-ए-पस-ए-पर्दा ज़रा तवक़्क़ुफ़ कर
अभी तो गर्म-ए-नज़र बज़्म-ए-मुम्किनात में हूँ

सवाल एक नज़र का है रद न कर ऐ दोस्त
गदा-ए-ख़ाक-बसर राह-ए-इलतिफ़ात में हूँ

हरीफ़-ए-जल्वा भी इक रोज़ हूँगा सब्र करो
अभी तो अपनी बहिश्त-ए-तसव्वुरात में हूँ

है तेरी याद का आलम भी कितना दिल-आवेज़
समझ रहा हूँ किसी और काएनात में हूँ

किसी के दिल का सुकूँ हूँ किसी के दिल की ख़लिश
ज़मीर-ए-वक़्त हूँ और क़ल्ब-ए-काएनात में हूँ

है मेरे हाथ में भी दिल का इक बुझा सा दिया
कुछ आँसुओं की सजाई हुई बरात में हूँ

हूँ ख़ुद ही आईना-ए-हाल क्या बताऊँ 'सिराज'
मैं किस का नक़्श-ए-क़दम अरसा-ए-हयात में हूँ