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गुनाह-गार-ए-वफ़ा लाएक़-ए-सज़ा लिख दो | शाही शायरी
gunah-gar-e-wafa laeq-e-saza likh do

ग़ज़ल

गुनाह-गार-ए-वफ़ा लाएक़-ए-सज़ा लिख दो

नाज़ क़ादरी

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गुनाह-गार-ए-वफ़ा लाएक़-ए-सज़ा लिख दो
मिरे ख़िलाफ़ ज़माने का फ़ैसला लिख दो

घिरी है दायरा-ए-कर्ब-ए-आगही में हयात
इसी हिसार में रहने का हौसला लिख दो

हर एक लम्हा है नोक-ए-सिनाँ पे सर अपना
मुझे सितम-ज़दा-ए-जज़्बा-ए-अना लिख दो

मैं दूसरों से भी कुछ दाद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म पाऊँ
हर एक लब पे मिरे दिल का मुद्दआ लिख दो

फ़ना के दश्त में रहते हुए ज़माना हुआ
मिरे जुनूँ को सर-ए-वादी-ए-बक़ा लिख दो

खुला मिरे लिए बाब-ए-असर नहीं न सही
मिरे लबों पे कोई बे-असर दुआ लिख दो

नवाह-ए-जाँ में कभी तो बहार आएगी
कभी तो बदलेगी इस दश्त की फ़ज़ा लिख दो

उरूस-ए-फ़िक्र की सादा हथेलियों के नाम
तमाम रंग-ए-शफ़क़ सुर्ख़ी-ए-हिना लिख दो

तुम्हारे हाथों में शाइर का है क़लम ऐ 'नाज़'
किताब-ए-दिल पे मोहब्बत का हाशिया लिख दो