गुमरही का मिरी सामान हुआ जाता है
रास्ता ज़ीस्त का आसान हुआ जाता है
इक तरफ़ रूह कि पर्वाज़ को जैसे तय्यार
इक तरफ़ जिस्म कि बे-जान हुआ जाता है
दश्त-ए-ग़ुर्बत है कि आबाद हमारे दम से
घर का आँगन है कि वीरान हुआ जाता है
क्यूँ न फिर धूप भी बन जाए घटा जब हम पर
आप का साया-ए-मिज़्गान हुआ जाता है
कह दिया आप ने क्या कान में चुपके से इसे
दिल में बरपा मिरे हैजान हुआ जाता है
आप की मेरी ही ग़ज़लों की हैं कतरन सारी
जिन से वो साहब-ए-दीवान हुआ जाता है
दी है चुपके से 'उबैद' उस ने लबों पर दस्तक
शोर बरपा तह-ए-शिरयान हुआ जाता है
ग़ज़ल
गुमरही का मिरी सामान हुआ जाता है
ओबैदुर् रहमान