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गुमाँ न क्यूँकि करूँ तुझ पे दिल चुराने का | शाही शायरी
guman na kyunki karun tujh pe dil churane ka

ग़ज़ल

गुमाँ न क्यूँकि करूँ तुझ पे दिल चुराने का

ममनून निज़ामुद्दीन

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गुमाँ न क्यूँकि करूँ तुझ पे दिल चुराने का
झुका के आँख सबब क्या है मुस्कुराने का

ये सीना है ये जिगर है ये दिल है बिस्मिल्लाह
अगर ख़याल है तलवार आज़माने का

किसी के होंठ के मिलते ही हम तमाम हुए
मज़ा मिला न हमें गालियाँ भी खाने का

मुझे ये दर्द है मालूम हुक्म-ए-बुलबुल बिन
न मेरी ख़ाक पे कर क़स्द फूल लाने का

किया फ़रेफ़्ता कह कह के हाल-ए-दिल उस को
असर फ़ुसूँ से नहीं कुछ कम इस फ़साने का

ग़मों की गर यही बालीदगी है तो आख़िर
दिल-ए-गिरफ़्ता नहीं सीने में समाने का