गुमाँ के तन पे यक़ीं का लिबास रहने दो
कि मेरे हाथ में ख़ाली गिलास रहने दो
ज़माना गुज़रा है ख़ुशियों का साथ छोड़े हुए
मिरे मिज़ाज को अब ग़म-शनास रहने दो
अमल की रुत में पनपती हैं टहनियाँ हक़ की
मिलाओ सच से निगाहें क़यास रहने दो
वो ख़्वाब को भी हक़ीक़त समझ के जीते हैं
इसी में ख़ुश हैं तो ये इल्तिबास रहने दो
मिला के हाथ शयातीं से देखते हो मुझे
अनानियत को तुम अपने ही पास रहने दो
मुझे न खींचो ख़ुशी के हिसार में ऐ 'अतीब'
उदास रहना है मुझ को उदास रहने दो
ग़ज़ल
गुमाँ के तन पे यक़ीं का लिबास रहने दो
अतयब एजाज़