गुम-शुदा तन्हाइयों की राज़-दाँ अच्छी तो हो
मैं यहाँ अच्छा नहीं हूँ तुम वहाँ अच्छी तो हो
वक़्त-ए-रुख़्सत भीगे भीगे इन दरीचों की क़सम
नूर-पैकर चाँद-सूरत गुलिस्ताँ अच्छी तो हो
थरथराते काँपते होंटों को आया कुछ सुकूँ
ऐ ज़बाँ रखते हुए भी बे-ज़बाँ अच्छी तो हो
धूप ने जब आरज़ू के जिस्म को नहला दिया
बन गई थीं तुम वफ़ा का साएबाँ अच्छी तो हो
रात भर चिल्ले वज़ीफ़े वो तहज्जुद और फज्र
मिल गया अब तो सिला ऐ मेरी माँ अच्छी तो हो
इस ज़माने में जब अपनों का भरोसा हो फ़रेब
सोचती रहती हो मैं जाऊँ कहाँ अच्छी तो हो
झिलमिलाते हैं सितारे रात को पलकों पे जब
चाँद से सुनती हो मेरी दास्ताँ अच्छी तो हो
वो तुम्हारी इक सहेली बन गई थी जो दुल्हन
उस से ख़त लिख कर कभी पूछा निहाँ अच्छी तो हो
जब कहीं जाओ तो लिख देना मुझे अपना पता
पूछने वर्ना मैं जाऊँगा कहाँ अच्छी तो हो
तुम सदा अच्छी रहो 'आज़र' की है बस ये दुआ
फ़ासले सदियों के हैं अब दरमियाँ अच्छी तो हो
ग़ज़ल
गुम-शुदा तन्हाइयों की राज़-दाँ अच्छी तो हो
कफ़ील आज़र अमरोहवी