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गुम-शुदा मौसम का आँखों में कोई सपना सा था | शाही शायरी
gum-shuda mausam ka aankhon mein koi sapna sa tha

ग़ज़ल

गुम-शुदा मौसम का आँखों में कोई सपना सा था

बदनाम नज़र

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गुम-शुदा मौसम का आँखों में कोई सपना सा था
बादलों के उड़ते टुकड़ों में तिरा चेहरा सा था

फिर कभी मिल जाए शायद ज़िंदगी की भीड़ में
जिस की बातें प्यारी थीं और नाम कुछ अच्छा सा था

जाँ-ब-लब होने लगा है प्यास की शिद्दत से वो
ख़ुश्क रेगिस्तान में इक शख़्स जो दरिया सा था

घिर गया है अब तो शो'लों में मिरा सारा वजूद
उस की यादें थीं तो सर पर इक ख़ुनुक साया सा था

उस ने अच्छा ही किया रिश्तों के धागे तोड़ कर
मैं भी कुछ उकता गया था वो भी कुछ ऊबा सा था

शहर की एक एक शय अपनी जगह पर है 'नज़र'
क्या हुआ वो आदमी कुछ कुछ जो दीवाना सा था