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गुम-ब-ख़ुद बेगाना-ए-हर-ऐश-ए-महफ़िल हो गए | शाही शायरी
gum-ba-KHud begana-e-har-aish-e-mahfil ho gae

ग़ज़ल

गुम-ब-ख़ुद बेगाना-ए-हर-ऐश-ए-महफ़िल हो गए

नज़ीर मुज़फ़्फ़रपुरी

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गुम-ब-ख़ुद बेगाना-ए-हर-ऐश-ए-महफ़िल हो गए
उन से मिल कर और भी तन्हा हम ऐ दिल हो गए

कितनी ना-मंज़ूर क़द्रें थीं जो अपनानी पड़ीं
कितने ही प्यारे अक़ाएद थे जो बातिल हो गए

इल्म जब कुछ भी न था तो इस क़दर जाहिल न थे
इल्म कुछ हासिल हुआ तो और जाहिल हो गए

ज़िंदगी का लुत्फ़ तूफ़ाँ में है तुग़्यानी में है
हैफ़ जो आसूदा-ए-आग़ोश-ए-साहिल हो गए

ये है मय-ख़ाना अदब लाज़िम है ये मस्जिद नहीं
दैर से आए सफ़-ए-अव्वल में शामिल हो गए

काश ये समझें सितम-केशान-ए-न्यूयॉर्क ऐ 'नज़ीर'
कोई है जिस के लिए हम उन से ग़ाफ़िल हो गए