गुलज़ार में ये कहती है बुलबुल गुल-ए-तर से
देखे कोई माशूक़ को आशिक़ की नज़र से
लो और सुनो कहते हैं वो हम से बिगड़ कर
देखो हमें देखो न मोहब्बत की नज़र से
वो उट्ठी वो आई वो घटा छा गई साक़ी
मय-ख़ाने पे अल्लाह करे टूट के बरसे
मय-ख़ाने पे घनघोर घटा छाई है बे-कार
खुलना हो तो खुल जाए बरसना हो तो बरसे
क्या इश्क़ है क्या शौक़ है क्या रश्क है क्या लाग
दिल जल्वा-गाह-ए-नाज़ में आगे है नज़र से
इस ख़ौफ़ से मिल लेते हैं वो 'नूह' से अक्सर
तूफ़ाँ न उठाए कहीं ये दीदा-ए-तर से
ग़ज़ल
गुलज़ार में ये कहती है बुलबुल गुल-ए-तर से
नूह नारवी