EN اردو
गुलज़ार में रफ़्तार-ए-सबा और ही कुछ है | शाही शायरी
gulzar mein raftar-e-saba aur hi kuchh hai

ग़ज़ल

गुलज़ार में रफ़्तार-ए-सबा और ही कुछ है

ललन चौधरी

;

गुलज़ार में रफ़्तार-ए-सबा और ही कुछ है
उस शोख़ के चलने की अदा और ही कुछ है

करती है ख़ुनुक दिल की तपिश बाद-ए-सहर भी
लेकिन तिरे दामन की हवा और ही कुछ है

शायद वो शबाब आने से आगाह हुआ है
पलकें हैं झुकीं रंग-ए-हया और ही कुछ है

किस शोख़ ने ज़ुल्फ़ों को हवा में है उड़ाया
ये तौबा-शिकन काली-घटा और ही कुछ है

कहने को तो हर फ़र्द-ओ-बशर सब हैं बराबर
दुनिया में मगर शोर बपा और ही कुछ है

बेकस का लहू शो'ला न बन जाए सँभलना
पैग़ाम सुनाती ये हवा और ही कुछ है

वो लाख सितम ढाएँ कभी उफ़ न करूँगा
आफ़त मिरा दस्तूर-ए-वफ़ा और ही कुछ है