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गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना | शाही शायरी
gulzar hai daghon se yahan tan-badan apna

ग़ज़ल

गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना

नज़ीर अकबराबादी

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गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना
कुछ ख़ौफ़ ख़िज़ाँ का नहीं रखता चमन अपना

अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां
ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना

किस तरह बने ऐसे से इंसाफ़ तो है शर्त
ये वज़्अ मिरी देखो वो देखो चलन अपना

इंकार नहीं आप के घर चलने से मुझ को
मैं चलने को मौजूद जो छोड़ो चलन अपना

मस्कन का पता ख़ाना-ब-दोशों से न पूछो
जिस जा पे कि बस गर रहे वो है वतन अपना