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गुल्सितान-ए-ज़िंदगी में ज़िंदगी पैदा करो | शाही शायरी
gulsitan-e-zindagi mein zindagi paida karo

ग़ज़ल

गुल्सितान-ए-ज़िंदगी में ज़िंदगी पैदा करो

अशोक साहनी

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गुल्सितान-ए-ज़िंदगी में ज़िंदगी पैदा करो
मुस्कुरा कर रूह में कुछ ताज़गी पैदा करो

मुर्दनी चेहरे बना कर फ़ाएदा जीने से क्या
कम से कम इस ज़िंदगी में ज़िंदगी पैदा करो

तोड़ दो बढ़ कर अँधेरी रात के षड़यंत्र को
कुछ नहीं तो आरज़ू-ए-रौशनी पैदा करो

वक़्त के बे-रहम हाथों ने कुचल डाला जिन्हें
उन ख़िज़ाँ-दीदा गुलों में ताज़गी पैदा करो

देख लेना ये जहाँ जन्नत-निशाँ बन जाएगा
दुश्मनों से रस्म-ओ-राह-ए-ज़िंदगी पैदा करो

सिर्फ़ आबादी बढ़ाने से कोई हासिल नहीं
जिन में हो इंसानियत वो आदमी पैदा करो

काबा ओ काशी अलामत हैं ख़ुदा के नूर के
तुम ग़रीबों के घरों में रौशनी पैदा करो

ज़िंदगी बख़्शी गई है दर्द-ए-दिल के वास्ते
ज़िंदगी में दर्द-ए-दिल ऐ 'साहनी' पैदा करो