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गुलशन-ए-दिल में मिले अक़्ल के सहरा में मिले | शाही शायरी
gulshan-e-dil mein mile aql ke sahra mein mile

ग़ज़ल

गुलशन-ए-दिल में मिले अक़्ल के सहरा में मिले

एहतिशाम हुसैन

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गुलशन-ए-दिल में मिले अक़्ल के सहरा में मिले
जो भी मिलना है मिले और इसी दुनिया में मिले

बरहमी अंजुमन-ए-शौक़ की क्या पूछते हो
दोस्त बिछड़े हुए अक्सर सफ़-ए-आ'दा में मिले

आने वालों ने मिरे बा'द गवाही दी है
कई गुलज़ार मिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा में मिले

यूँ भी गुज़री है कि छाए रहे बेदारी पर
नींद आई तो वो ग़म ख़्वाब की दुनिया में मिले

नहीं मालूम कि क्या देखने आए थे उधर
बे-अजर लोग बहुत शहर-ए-तमाशा में मिले

फिर उमीदों ने यहीं गाड़ दिए हैं ख़ेमे
रंग कुछ उड़ते हुए दामन-ए-सहरा में मिले

फ़ासलों से न मिरे शौक़ की मंज़िल नापो
शश-जिहत सैद मिरे दाम-ए-तमन्ना में मिले