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गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की | शाही शायरी
gulon ke parde mein shaklen hain mah-jabinon ki

ग़ज़ल

गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की

रियाज़ ख़ैराबादी

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गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की
ये डालियाँ हैं कि हैं डोलियाँ हसीनों की

ये आस्तीनें नहीं हैं चुनी हुई ज़ालिम
बलाएँ ली हैं निगाहों से आस्तीनों की

किसी के जल्वे सर-ए-अर्श छुप नहीं सकते
कि दूर रसन हैं निगाहें बुलंद बीनों की

पस-ए-फ़ना भी न ख़ाली रहें ये क़स्र-ए-रफ़ी
न हों मकीन तो क़ब्रें रहें मकीनों की

किस इंतिहा की नज़ाकत है मेरे शे'रों में
नज़र लगे न कहीं उन को नुक्ता-चीनों की

जो नींद आए तो यूँ आए मौत आए तो यूँ
हमारे सामने शक्लें हों मह-जबीनों की

हम अपने मुल्क-ए-सुख़न को वसीअ' करते हैं
हमें तलाश है हर-दम नई ज़मीनों की

उन्हें ग़रज़ मिरी बातें खड़े खड़े सुन लें
सुनेंगे बैठ के वो अपने हम-नशीनों की

कहाँ वो चाँदनी रातें वो चाँद के टुकड़े
न अब वो हम हैं न शक्लें हैं मह-जबीनों की

उतरते हैं नए मज़मूँ जो आसमाँ से 'रियाज़'
तलाश रहती है हम को नई ज़मीनों की