गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी
क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
काफ़ी है तसल्ली को मिरी एक नज़र भी
ऐ अब्र क़सम है तुझे रोने की हमारे
तुझ चश्म से टपका है कभू लख़्त-ए-जिगर भी
ऐ नाला सद अफ़्सोस जवाँ मरने पे तेरे
पाया न तनिक देखने तीं रू-ए-असर भी
किस हस्ती-ए-मौहूम पे नाज़ाँ है तू ऐ यार
कुछ अपने शब-ओ-रोज़ की है तुज को ख़बर भी
तन्हा तिरे मातम में नहीं शाम-ए-सियह-पोश
रहता है सदा चाक गरेबान-ए-सहर भी
'सौदा' तिरी फ़रियाद से आँखों में कटी रात
आई है सहर होने को टुक तू कहीं मर भी
ग़ज़ल
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
मोहम्मद रफ़ी सौदा