गुल को महबूब हम-क़्यास किया
फ़र्क़ निकला बहुत जो बास किया
दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना
एक आलम का रू-शनास किया
कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बे-हवास किया
इश्क़ में हम हुए न दीवाने
क़ैस की आबरू का पास किया
दौर से चर्ख़ के निकल न सके
ज़ोफ़ ने हम को मूरतास किया
सुब्ह तक शम्अ सर को धुनती रही
क्या पतिंगे ने इल्तिमास किया
तुझ से क्या क्या तवक्क़ोएँ थीं हमें
सो तिरे ज़ुल्म ने निरास किया
ऐसे वहशी कहाँ हैं ऐ ख़ूबाँ
'मीर' को तुम अबस उदास किया
ग़ज़ल
गुल को महबूब हम-क़्यास किया
मीर तक़ी मीर