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गुल है ज़ख़्मी बहार के हाथों | शाही शायरी
gul hai zaKHmi bahaar ke hathon

ग़ज़ल

गुल है ज़ख़्मी बहार के हाथों

मीर हसन

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गुल है ज़ख़्मी बहार के हाथों
दिल है सद-चाक यार के हाथों

दम-ब-दम क़त्अ होती जाती है
उम्र लैल-ओ-नहार के हाथों

जाँ-ब-लब हो रहा हूँ मिस्ल-ए-हबाब
मैं तिरे इंतिज़ार के हाथों

एक दम भी मिला न हम को क़रार
इस दिल-ए-बे-क़रार के हाथों

अपनी सर-गश्तगी कभी न गई
गर्दिश-ए-रोज़गार के हाथों

इक शगूफ़ा उठे है रोज़ नया
इस दिल-ए-दाग़-दार के हाथों

दिल पे क्या क्या हुए हैं नक़्श-ओ-निगार
नावक-ए-दिल-फ़िगार के हाथों

हो रहा है ख़राब ख़ाना-ए-दिल
दीदा-ए-अश्क-बार के हाथों

गर कभी लग गया तिरा दामन
मेरी मुश्त-ए-ग़ुबार के हाथों

छूटना है फिर उस का अम्र-ए-मुहाल
इस तिरे ख़ाकसार के हाथों

इक दिल ख़ार ख़ार हूँ मैं 'हसन'
अपने उस गुल-एज़ार के हाथों