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गुल-ए-ख़ुश-नुमा के लिबास में कि शुआ-ए-नूर में ढल के आ | शाही शायरी
gul-e-KHush-numa ke libas mein ki shua-e-nur mein Dhal ke aa

ग़ज़ल

गुल-ए-ख़ुश-नुमा के लिबास में कि शुआ-ए-नूर में ढल के आ

शायर फतहपुरी

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गुल-ए-ख़ुश-नुमा के लिबास में कि शुआ-ए-नूर में ढल के आ
तुझे ढूँढ लेगी मिरी नज़र तू हज़ार रंग बदल के आ

तिरे दिल की आग हक़ीक़तन तिरे हक़ में फ़स्ल-ए-बहार है
जो बुझाए से भी न बुझ सके उसी दिल की आग में जल के आ

तिरी जुस्तुजू भी हिजाब है तिरी आरज़ू भी हिजाब है
कभी दाम-ए-अक़्ल-ओ-शुऊ'र से जो निकल सके तो निकल के आ

ये है अहल-ए-ज़र्फ़ की अंजुमन ये है अहल-ए-इश्क़ का मय-कदा
तू हज़ार नश्शे में चूर हो जो यहाँ पे आ तो सँभल के आ

मह-ओ-मेहर में भी है दिलकशी मगर उस की बात है और ही
तुझे आरज़ू-ए-जमाल है तो हरीम-ए-नाज़ में चल के आ

ये जुनून-ए-इश्क़ की शान है तुझे लोग कुछ भी कहा करें
जो अता-ए-कू-ए-हबीब है वही ख़ाक चेहरा पे मल के आ

असर-आफ़रीन-ए-बहार है तिरी फ़िक्र 'शाइ'र'-ए-ख़ुश-नवा
जिन्हें छू सके न ख़िज़ाँ कभी वही फूल ले के ग़ज़ल के आ