गुल-बदन ख़ाक-नशीनों से परे हट जाएँ
आसमाँ उजली ज़मीनों से परे हट जाएँ
मैं भी देखूँ तो सही बिफरे समुंदर का मिज़ाज
अब ये मल्लाह सफ़ीनों से परे हट जाएँ
करने वाला हूँ दिलों पर मैं मोहब्बत का नुज़ूल
सारे बू-जहल मदीनों से परे हट जाएँ
मैं ख़लाओं के सफ़र पर हूँ निकलने वाला
चाँद सूरज मिरे ज़ीनों से परे हट जाएँ
अब तो हम ज़ाहिरी सज्दे भी तिरे छोड़ चुके
अब तो ये दाग़ जबीनों से परे हट जाएँ
ग़ज़ल
गुल-बदन ख़ाक-नशीनों से परे हट जाएँ
मुमताज़ गुर्मानी