गुल-ब-दामाँ न कोई शो'ला ब-जाँ है अब के
चार सू वक़्त की राहों में धुआँ है अब के
शाम-ए-हिज्राँ जिसे हाथों में लिए फिरती है
कौन जाने कि वो तस्वीर कहाँ है अब के
ज़िंदगी रात के फैले हुए सन्नाटे में
दूर हटते हुए क़दमों का निशाँ है अब के
तेरी पलकों पे कोई ख़्वाब लरज़ता होगा
मेरे गीतों में कोई दर्द जवाँ है अब के
एक इक साँस पे धोका है किसी आहट का
एक इक घाव उजालों की ज़बाँ है अब के
सहन-ए-गुलशन है बहारों के लहू से रंगीं
शाख़-ए-गुल है कि बस इक तेग़-ए-रवाँ है अब के
जो कभी हुस्न के होंटों पे न आया 'जामी'
हाए वो हर्फ़-ए-तसल्ली भी गराँ है अब के
ग़ज़ल
गुल-ब-दामाँ न कोई शो'ला ब-जाँ है अब के
ख़ुर्शीद अहमद जामी