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गुदाज़-ए-दिल से बातिन का तजल्ली-ज़ार हो जाना | शाही शायरी
gudaz-e-dil se baatin ka tajalli-zar ho jaana

ग़ज़ल

गुदाज़-ए-दिल से बातिन का तजल्ली-ज़ार हो जाना

जोश मलीहाबादी

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गुदाज़-ए-दिल से बातिन का तजल्ली-ज़ार हो जाना
मोहब्बत अस्ल में है रूह का बेदार हो जाना

नवेद-ए-ऐश से ऐ दिल ज़रा हुश्यार हो जाना
किसी ताज़ा मुसीबत के लिए तय्यार हो जाना

वो उन के दिल में शौक़-ए-ख़ुद-नुमाई का ख़याल आना
वो हर शय का तबस्सुम के लिए तय्यार हो जाना

मिज़ाज-ए-हुस्न को अब भी न समझो तो क़यामत है
हमारा और वफ़ा के नाम से बे-ज़ार हो जाना

सहर का इस तरह अंगड़ाई लेना दिल-फ़रेबी से
उधर शाइर के महसूसात का बेदार हो जाना

तवस्सुल से तिरे दिल में भरूँगा क़ुव्वतें बर्क़ी
ज़रा मेरी तरफ़ भी ऐ निगाह-ए-यार हो जाना

वो आराइश में सब क़ुव्वत किसी का सर्फ़ कर देना
तहम्मुल में वो हर कोशिश मिरी बेकार हो जाना

मआज़-अल्लाह अब ये रंग है दुनिया की महफ़िल का
ख़ुदा का नाम लेना और ज़लील ओ ख़्वार हो जाना

रगों से ख़ून सारा ज़हर बन कर फूट निकलेगा
ज़रा ऐ 'जोश' ज़ब्त-ए-शौक़ से हुश्यार हो जाना