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ग़ुबार-ओ-गर्द ने समझा है रहनुमा मुझ को | शाही शायरी
ghubar-o-gard ne samjha hai rahnuma mujhko

ग़ज़ल

ग़ुबार-ओ-गर्द ने समझा है रहनुमा मुझ को

अमीक़ हनफ़ी

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ग़ुबार-ओ-गर्द ने समझा है रहनुमा मुझ को
तलाश करता फिरा है ये क़ाफ़िला मुझ को

तवील राह-ए-सफ़र पर हैं फूट फूट पड़ा
न क्यूँ समझते मिरे पैर आबला मुझ को

शिकस्त-ए-दिल की सदा हूँ बिखर भी जाने दे
ख़ुतूत-ओ-रंग की ज़ंजीर मत पिन्हा मुझ को

ज़मीन पर है समुंदर फ़लक पे अब्र-ए-ग़ुबार
उतारती है कहाँ देखिए हवा मुझ को

सुकूत तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का इक गराँ लम्हा
बना गया है सदाओं का सिलसिला मुझ को

वो दूर दूर से अब क्यूँ मुझे जलाता है
क़रीब आ के बहुत जो बुझा गया मुझ को

रचा के एक तिलिस्म-ए-सवाबित-ओ-सय्यार
कशिश में अपनी बुलाने लगा ख़ला मुझ को