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ग़ुबार-ए-वक़्त के गर आर-पार देखिएगा | शाही शायरी
ghubar-e-waqt ke gar aar-par dekhiyega

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-वक़्त के गर आर-पार देखिएगा

अहमद शहरयार

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ग़ुबार-ए-वक़्त के गर आर-पार देखिएगा
तो एक पल में मिरा शहसवार देखिएगा

मैं एक बार उसे फेरूँगा अपनी गर्दन पर
और आप बस मिरे ख़ंजर की धार देखिएगा

किसी का नक़्श नहीं बाँधिएगा आँखों में
जिसे भी देखिए आईना-वार देखिएगा

कभी न लौट के आएँगे आप जानता हूँ
पर आइए तो मिरा इंतिज़ार देखिएगा

न दस्तकें न सदा कौन दर पे आया है
फ़क़ीर-ए-शहर है या शहरयार देखिएगा