EN اردو
ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रहगुज़ार में हैं | शाही शायरी
ghubar-e-rah ke manind rahguzar mein hain

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रहगुज़ार में हैं

निकहत बरेलवी

;

ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रहगुज़ार में हैं
हमारा क्या है भला हम भी किस शुमार में हैं

अगर वो ग़ैर के हाथों में खेलते हैं तो क्या
हम अपने आप भी कब अपने इख़्तियार में हैं

हमारा आलम-ए-हसरत भी है अजीब कि हम
गुज़र गए हैं जो दिन उन के इंतिज़ार में हैं

ज़माना अपनी हदों से निकल के फैल गया
और एक हम कि अभी अपने ही हिसार में हैं

ये अपना शहर अंधेरों का शहर है शायद
बड़े अज़ाब यहाँ रौशनी से प्यार में हैं

वो जान-ए-बज़्म गया रौनक़ें तमाम हुईं
ये लोग किस लिए बैठे हैं किस ख़ुमार में हैं

अजब फ़ज़ाएँ हैं 'निकहत' खुला न कुछ हम पर
ये अपना घर है कि मैदान-ए-कार-ज़ार में हैं