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ग़ुबार-ए-जहाँ में छुपे बा-कमालों की सफ़ देखता हूँ | शाही शायरी
ghubar-e-jahan mein chhupe ba-kamalon ki saf dekhta hun

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-जहाँ में छुपे बा-कमालों की सफ़ देखता हूँ

ऐन ताबिश

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ग़ुबार-ए-जहाँ में छुपे बा-कमालों की सफ़ देखता हूँ
मैं अहद-ए-गुज़िश्ता के आशुफ़्तगाँ की तरफ़ देखता हूँ

मैं सर को छुपाने से पहले जहाँ का हदफ़ देखता हूँ
महकते हुए नेक फूलों को ख़ंजर-ब-कफ़ देखता हूँ

है अंदर तलक एक नेज़ा गुलू मैं कार-ए-वज़ू में
तो इस हाव में मैं कहाँ पर हूँ किस की तरफ़ देखता हूँ

ज़माने की घातें किताबों की बातों को झुटला रही हैं
मैं हैरत का मारा तमाशाई-ए-इज़ ओ शरफ़ देखता हूँ

पनह मिल न पाई ख़याल-ए-ख़ुदा में जमाल-ए-ख़ुदी में
मैं इस बेबसी में परेशान सू-ए-नजफ़ देखता हूँ