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ग़ुबार-ए-इश्क़ से हस्ती को भरने वाला हूँ मैं | शाही शायरी
ghubar-e-ishq se hasti ko bharne wala hun main

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-इश्क़ से हस्ती को भरने वाला हूँ मैं

ज़ीशान साजिद

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ग़ुबार-ए-इश्क़ से हस्ती को भरने वाला हूँ मैं
ये रौशनी तो सर-ए-चाक धरने वाला हूँ मैं

ख़मीर-ए-ज़ौक़ तुझे मंज़िलों पे लाएगा
वुफ़ूर-ए-शौक़ में जाँ से गुज़रने वाला हूँ मैं

ख़राब करती रहीं मुझ को संगतें ही तिरी
हर इक बिगाड़ पे समझा सँवरने वाला हूँ मैं

किसी की राय पे कब कान धरने वाला हूँ मैं
ये उम्र अपनी ही धन में बसरने वाला हूँ मैं

ख़ुद अपनी ज़ात से बाहर हो मुनक़सिम तुम तो
ख़ुद अपनी ज़ात के अंदर बिखरने वाला हूँ मैं

किसी तरफ़ से तराज़ू ज़रूर झुकता है सो
किसी मफ़ाद में नुक़सान करने वाला हूँ मैं

मैं अपने आप को समझा तो मेरा ख़ौफ़ गया
कि लोग तो ये समझते थे डरने वाला हूँ मैं

न आ सकेंगे तिरे ख़ाल-ओ-ख़द सर-ए-मंज़र
न कैनवस में कोई रंग भरने वाला हूँ मैं

हमें ये मौत जुदा कर न पाएगी 'ज़ीशान'
वो तितलियों में गुलों में उभरने वाला हूँ मैं