ग़ुबार दिल से निकाला नज़र को साफ़ किया
फिर उस के बाद मोहब्बत का ए'तिराफ़ किया
जो वो नहीं था तो मैं मुत्तफ़िक़ था लोगों से
वो मेरे सामने आया तो इख़्तिलाफ़ किया
हर एक जुर्म की पाता रहा सज़ा लेकिन
हर एक जुर्म ज़माने का मैं ने माफ़ किया
वो शब गुज़ारने आएगा मेरे कूचे में
हवा-ए-शाम ने धीरे से इंकिशाफ़ किया
इस अंजुमन में मैं आया था जिन की मर्ज़ी से
उन्हें तुम्हारी नज़र से मिरे ख़िलाफ़ किया
ग़ज़ल
ग़ुबार दिल से निकाला नज़र को साफ़ किया
ज़ीशान साहिल