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गो मिरी हर साँस इक पेगाज़-ए-सरमस्ती रही | शाही शायरी
go meri har sans ek paigham-e-sarmasti rahi

ग़ज़ल

गो मिरी हर साँस इक पेगाज़-ए-सरमस्ती रही

ज़ेब ग़ौरी

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गो मिरी हर साँस इक पेगाज़-ए-सरमस्ती रही
मेरी हस्ती मिस्ल-ए-बू-ए-गुल परेशाँ ही रही

हश्र तामीर-ए-नशेमन का नज़र में है मगर
इतने दिन मेरी तबीअ'त तो ज़रा बहली रही

कितनी सुब्हें यास की ज़ुल्मत में आख़िर बुझ गईं
शम-ए-दिल जलती रही जलती रही जलती रही

किस के रोके रुक सका सैल-ए-रवान-ए-ज़िंदगी
फूल खिलते ही रहे बिजली चमकती ही रही

'ज़ेब' कितनी देर का हंगामा-ए-सैलाब था
रौनक़-ए-दरिया मिरी टूटी हुई कश्ती रही