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गो मसलक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी है कोई चीज़ | शाही शायरी
go maslak-e-taslim-o-raza bhi hai koi chiz

ग़ज़ल

गो मसलक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी है कोई चीज़

साहिर लुधियानवी

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गो मसलक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी है कोई चीज़
पर ग़ैरत-अरबाब-ए-वफ़ा भी है कोई चीज़

खुलता है हर इक गुंचा-ए-नौ-जोश-ए-नुमू से
ये सच है मगर लम्स-ए-हवा भी है कोई चीज़

ये बे-रुख़ी-ए-फ़ितरत महबूब के शाकी
इतना भी न समझे कि अदा भी है कोई चीज़

इबरत-कदा-ए-दहर में ऐ तारिक-ए-दुनिया
लज़्ज़त-कदा-ए-जुर्म-ओ-ख़ता भी है कोई चीज़

लपकेगा गरेबाँ पे तो महसूस करोगे
ऐ अहल-ए-दुवल दस्त-ए-गदा भी है कोई चीज़