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गो जाम मिरा ज़हर से लबरेज़ बहुत है | शाही शायरी
go jam mera zahr se labrez bahut hai

ग़ज़ल

गो जाम मिरा ज़हर से लबरेज़ बहुत है

कृष्ण अदीब

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गो जाम मिरा ज़हर से लबरेज़ बहुत है
क्या जानिए क्यूँ पीने से परहेज़ बहुत है

शो-केस में रक्खा हुआ औरत का जो बुत है
गूँगा ही सही फिर भी दिल-आवेज़ बहुत है

अशआर के फूलों से लदी शाख़-ए-तमन्ना
मिट्टी मिरे एहसास की ज़रख़ेज़ बहुत है

खुल जाता है तन्हाई में मल्बूस की मानिंद
वो रश्क-ए-गुल-ए-तर कि कम-आमेज़ बहुत है

मौसम का तक़ाज़ा है कि लज़्ज़त का बदन चूम
ख़्वाहिश के दरख़्तों में हवा तेज़ बहुत है

आँखों में लिए फिरता है ख़्वाबों के जज़ीरे
वो शाइर-ए-आशुफ़्ता जो शब-ख़ेज़ बहुत है