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गो हूँ वहशी प तिरे दर से न टल जाऊँगा | शाही शायरी
go hun wahshi pa tere dar se na Tal jaunga

ग़ज़ल

गो हूँ वहशी प तिरे दर से न टल जाऊँगा

जुरअत क़लंदर बख़्श

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गो हूँ वहशी प तिरे दर से न टल जाऊँगा
हाँ मगर दश्त-ए-अदम ही को निकल जाऊँगा

ताइर-ए-नामा-बर अपना यही कहता है कि आह
रक़म-ए-शौक़ की गर्मी से मैं जल जाऊँगा

जल्द ऐ काश जतावे उसे जोबन उस का
फिर हो किस काम के तुम जब कि मैं ढल जाऊँगा

आज गो उस ने ब-रुस्वाई निकाला मुझ को
गर यही दिल है तो फिर आप से कल जाऊँगा

मशवरा कर के ये दिल कूचा-ए-जानाँ को चला
अज़्म तो लाने का कीजो मैं मचल जाऊँगा

गर यही आतिश-ए-उल्फ़त है तो मानिंद-ए-सिपंद
आह में मुजमिर हस्ती से उछल जाऊँगा

नौ-गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हूँ मिरी वज़्अ से तुम
इतना घबराओ न प्यारे मैं सँभल जाऊँगा

वाए क़िस्मत कहे जब सब्र सा मूनिस ये बात
तुझ पे देखूँगा बुरा वक़्त तो टल जाऊँगा

जल्द ख़ू अपनी बदल वर्ना कोई कर के तिलिस्म
आ के दिल अपना तिरे दिल से बदल जाऊँगा

जी कहीं तू न फँसा वर्ना तिरे दाम से मैं
आब-ए-ग़िर्बाल की मानिंद निकल जाऊँगा

जूँ हिना अपने वो क़दमों से न लगने देंगे
इस तमन्ना में अगर ख़ाक में रल जाऊँगा

जाते जाते कफ़-ए-अफ़्सोस इसी हसरत में
अश्क भर ला के दम-ए-नज़अ भी मल जाऊँगा

जिन के नज़दीक है अंदाज़-ए-ग़ज़ल 'मीर' पे ख़त्म
उन को 'जुरअत' मैं सुनाने ये ग़ज़ल जाऊँगा