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गो हुस्न की सूरत हैं मिरी सम्त रवाँ भी | शाही शायरी
go husn ki surat hain meri samt rawan bhi

ग़ज़ल

गो हुस्न की सूरत हैं मिरी सम्त रवाँ भी

जमील यूसुफ़

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गो हुस्न की सूरत हैं मिरी सम्त रवाँ भी
इक ख़्वाब सी लगती हैं मुझे रौशनियाँ भी

कुछ अपनी कहो डूबते तारों को न देखो
शायद न मिले फिर ये नशात-ए-गुज़राँ भी

सोचा था कि लूटूँ तिरी फ़ुर्क़त के ख़ज़ीने
देखा न गया तेरे बिछड़ने का समाँ भी

कुछ दिल भी है मेरा ग़म-ए-अय्याम से बोझल
कुछ शाम की दहलीज़ से उठता है धुआँ भी

किस अजनबी रह-रव के तआ'क़ुब में चला है
पाएगा न तू रेत पे क़दमों के निशाँ भी

करता हूँ कभी चश्म-ए-तख़य्युल से नज़ारा
होता है कभी तुझ पे मोहब्बत का गुमाँ भी

तू हासिल-ए-मंज़िल भी मिरा राह-नुमा भी
तू मुझ से गुरेज़ाँ भी क़रीब-ए-रग-ए-जाँ भी