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गो दूर हो चुका हूँ यारान-ए-अंजुमन से | शाही शायरी
go dur ho chuka hun yaran-e-anjuman se

ग़ज़ल

गो दूर हो चुका हूँ यारान-ए-अंजुमन से

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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गो दूर हो चुका हूँ यारान-ए-अंजुमन से
लेकिन मफ़र नहीं है एहसास की चुभन से

हुस्न-ए-नज़र का जादू सर चढ़ के बोलता है
अस्नाम-ए-मर्मरीं भी लगते हैं सीम-तन से

ग़ुंचा ही फूल बन कर जान-ए-चमन हुआ है
मैं ने यक़ीं की दौलत पाई है हुस्न-ए-ज़न से

आज उन के रास्तों में काँटे बिछे हुए हैं
कल तक जो खेलते थे रंगीनी-ए-चमन से

जैसे चमन से निकहत जैसे सदफ़ से मोती
ऐसे जुदा हुआ हूँ मैं जन्नत-ए-वतन से

मैं राज़-ए-रंग-ओ-बू से ना-आश्ना नहीं हूँ
मुझ को गिला भी कब है फूलों की अंजुमन से

मेरी ग़ज़ल 'उरूज' इक तस्वीर-ए-अस्र-ए-नौ है
मैं ने उसे सँवारा तहज़ीब-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न से