EN اردو
गिर्या, मायूसी, ग़म-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ न रहा | शाही शायरी
girya, mayusi, gham-e-tark-e-wafa kuchh na raha

ग़ज़ल

गिर्या, मायूसी, ग़म-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ न रहा

किश्वर नाहीद

;

गिर्या, मायूसी, ग़म-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ न रहा
ज़िंदगी रह गई जीने का मज़ा कुछ न रहा

रौशनी थी तो हर इक शय की हक़ीक़त थी अयाँ
तीरगी में मिरी आँखों के सिवा कुछ न रहा

पैरहन रंग बिरंगे निकल आए इतने
नौ-दमीदा गुल-ए-शब्बू में छुपा कुछ न रहा

खा गई ख़ाक को ही ख़ाक करें किसी से गिला
क्या कुरेदें कि तह-ए-ख़ाक छपा कुछ न रहा

तेरे मिलने के ढंग भी तस्लीम मगर
ज़ाइक़ा इस तरह बदला कि मज़ा कुछ न रहा

क्यूँ न हो हश्र बपा दाद-ए-वफ़ा क्यूँ न मिले
जब तिरे चाहने वालों के सिवा कुछ न रहा

क्यूँ न मेहमानों के कमरे में सजाएँ इन को
इल्म का नाम किताबों के सिवा कुछ न रहा

ख़ुश्बू-ए-वस्ल तवज्जोह का वो आलम वो ख़ुलूस
डूबते चाँद की आग़ोश में क्या कुछ न रहा